मरने के बाद भी भेदभाव: पहलगाम आतंकी हमले में दलितों को अनुग्रह राशि देने में असमानता पीड़ादायक बल्कि हमारे संविधान की मूल भावना पर भी गहरा आघात है।……तरुण खटकर…

रायपुर – पहलगाम आतंकी हमले की खबर सुनकर मन पीड़ा और गुस्से से भर गया निर्दोष लोगों की जान गई ,परिवार उजड़ गया और समाज में डर का माहौल पैदा हो गया
ऐसे संकट की घड़ी में सरकार और समाज से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पीड़ितों के साथ खड़ी रहे, उन्हें हर संभव सहायता प्रदान करे और यह सुनिश्चित करे कि न्याय मिले।
लेकिन जब इसी सहायता और अनुग्रह राशि के वितरण में भी भेदभाव की खबरें आती हैं, वह भी मरने के बाद, तो यह न केवल पीड़ादायक है बल्कि हमारे संविधान की मूल भावना पर भी एक गहरा आघात है।
पहलगाम आतंकी हमले में हाल ही में कुछ ऐसी खबरें सामने आई हैं जिनमें आतंकी हमलों में मारे गए दलित परिवारों को अन्य समुदायों के पीड़ितों की तुलना में कम अनुग्रह राशि दी गई। यह विचलित करने वाला तथ्य दर्शाता है कि हमारे समाज में जातिगत भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं कि मृत्यु के बाद भी यह पीछा नहीं छोड़ता।
क्या एक दलित की जान किसी अन्य नागरिक की जान से कम कीमती है? क्या उनके दुख और नुकसान की भरपाई कम राशि से हो सकती है?
यह प्रश्न हर संवेदनशील नागरिक के मन में उठना स्वाभाविक है।
हमारा संविधान, जिसकी प्रस्तावना में ही समानता, स्वतंत्रता और न्याय के आदर्शों को स्थापित किया गया है, किसी भी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार करता है।
अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष सभी नागरिकों को समान मानता है और अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है।
जब सरकार ही पीड़ितों को अनुग्रह राशि देने में जाति के आधार पर अंतर करती है, तो यह सीधे-सीधे संविधान का उल्लंघन है। यह उन मूल्यों का अपमान है जिन पर हमारे राष्ट्र की नींव टिकी है।
यह तर्क देना कि अनुग्रह राशि अलग-अलग नीतियों या नियमों के तहत दी जा रही है, इस अन्याय को सही नहीं ठहरा सकता। संकट की स्थिति में, जब लोग अपनी जान गंवा चुके हैं, तब इस प्रकार के तकनीकी और प्रशासनिक बहाने बनाना संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।
पीड़ितों के परिवारों को तत्काल और समान सहायता की आवश्यकता होती है, न कि जटिल नियमों और भेदभावपूर्ण नीतियों की।
यह समझना होगा कि आतंकी हमला किसी एक जाति या समुदाय पर नहीं होता, बल्कि यह पूरे राष्ट्र पर हमला होता है। इसमें मरने वाले सभी नागरिक समान रूप से देश के नागरिक हैं और उनके परिवारों को समान सम्मान और सहायता का अधिकार है।
दलित समुदाय, जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर रहा है, ऐसे दुखद समय में और अधिक भेदभाव का शिकार हो, यह अत्यंत अन्यायपूर्ण है।
मरने के बाद भी भेदभाव करना न केवल अमानवीय है बल्कि यह सामाजिक ताने-बाने को भी कमजोर करता है। यह पीड़ितों के मन में और अधिक अलगाव और अन्याय की भावना पैदा करता है, जिससे समाज में अविश्वास और कटुता बढ़ती है।
सरकार को यह समझना होगा कि न्याय केवल कानून की किताबों में ही नहीं, बल्कि व्यवहार में भी दिखना चाहिए।
यह समय है कि सरकार इस गंभीर मुद्दे पर तत्काल ध्यान दे और यह सुनिश्चित करे कि भविष्य में किसी भी आपदा या आतंकी हमले में मारे गए सभी पीड़ितों को बिना किसी भेदभाव के समान अनुग्रह राशि और सहायता प्रदान की जाए।
इसके लिए मौजूदा नीतियों और नियमों की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें आवश्यक बदलाव लाने चाहिए ताकि जातिगत भेदभाव की कोई गुंजाइश न रहे।
अंत में, यह कहना आवश्यक है कि आतंकी हमले में मारे गए दलितों को अनुग्रह राशि देने में किया जा रहा भेदभाव न केवल संविधान के साथ खिलवाड़ है, बल्कि यह हमारी मानवीय संवेदनाओं पर भी एक गहरा धब्बा है।
हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहाँ जीवन और मृत्यु दोनों में सभी नागरिकों को समान सम्मान और न्याय मिले। तभी हम सही मायने में एक मजबूत और समावेशी राष्ट्र बन पाएंगे।